
कई बार था यकीं दिलाया कि
मैं गुनाहगार नहीं ...
पर ज्यों - ज्यों प्रतिकार करती
त्यों - त्यों अपराध बढ़ता जाता
मैं जिद्दी , उद्दंड कहलाने लगी
जबकि दोष अपना कुछ भी न था
पर खुद को सही साबित करना
अविश्वास को बढ़ावा देना जैसा ही हुआ
न किया गया अपराध भी अपराध जैसा लगने लगा |