रविवार, 12 अप्रैल 2015

बिखरती ही रही
कभी सिमटी ही नही ।
वफ़ा के साये में
 बेवफाई पलटी रही ।
बातों किस्सों में
उलझकर रह गई ...
जमाना खामोश रहा
किसी की एक न चली ।
धुवाँ बनकर उड़ती रही हसरतें
ख्वाइशें जलकर राख होती गई
न इंतज़ार किसी का ...
और न मिलने की उम्मीद
इस कदर सिमटी जिंदगी
की सांसों की गुलाम हो गई ...
रात को घर बना लिया
सुबह की मेहमान बन गई ।