मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

फुर्सत में




आइने के सामने से , जो मैं गुजरी 
तो , उसी पल ठिठक कर , ठहर गई |
चेहरे पर , उम्र की लकीरों को देख...
यक़ीनन मैं थी डर गई |
पर उसी पल होंठों पर 
सुकूने मुस्कान भी बिखर गई |
शायद दिल में ... बीते लम्हों को 
इत्मिनान से जीने का सकून था |
और आज भी खुद पर भरोसा मुझे बेहिसाब था |

3 टिप्‍पणियां:

देवेंद्र ने कहा…

पहला स्टेंजा- असली सच
दूसरा स्टेंजा- सोचा-समझा सच

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

बीते लम्हों को इत्मीनान से बिताने का सकून सचमुच ही खुद के भरोसे को मजबूत करता है.

Bharat Bhushan ने कहा…

जीवन स्वयं को ऐसा ही देखता है और यही उसके जीवंत होने की निशानी भी है. सुंदर रचना.