बंद कमरे में बंद किताबों सी पड़ी रहती है ....
न जाने कौन सा वर्क कब कोई इतिहास रच जाये ....
कई दास्ताँनें बंद है इन किताबों में ....
पर कोई पन्नों को पलटता ही नहीं ....
बस खामोश रहकर खुली आँखों से तकती है ,
ये वो दीवारे ......
जिन्हें रंगने भी कोई न आया आजतक .....
हाँ दीवारों में कुछ रंग पहले से हैं मौजूद .....
जिन्हें देख - देखकर आँखों को सुकून ...
आया है अभी तक ....
पर दीवारों के वो बड़े - बड़े पेच .....
जिन्हें देखकर बरबस परेशान होता है ये मन
फिर भी इसे देखने , न रंगने कोई आया अभी तक .....