रविवार, 28 अक्तूबर 2012

अन्याय



कई बार था यकीं दिलाया कि 
मैं गुनाहगार नहीं ...
पर ज्यों - ज्यों प्रतिकार करती 
त्यों - त्यों अपराध बढ़ता जाता 
मैं जिद्दी , उद्दंड कहलाने लगी 
जबकि दोष अपना कुछ भी न था 
पर खुद को सही साबित करना 
अविश्वास को बढ़ावा देना जैसा ही हुआ 
न किया गया अपराध भी अपराध जैसा लगने लगा |

3 टिप्‍पणियां:

neelima garg ने कहा…

good....

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

बहुतों की अनुभूति को आपने शब्दों के द्वारा आकार प्रदान किया हैं।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…



दोष अपना कुछ भी न था
पर खुद को सही साबित करना अविश्वास को बढ़ावा देना जैसा ही हुआ
न किया गया अपराध भी अपराध जैसा लगने लगा…


छोड़िए न …!
कुछ तो लोग कहेंगे , लोगों का काम है कहना ...!!
आदरणीया मीनाक्षी जी !

अच्छी रचना है…
सुंदर भाव ! सुंदर शब्द !
आभार …


बनी रहे त्यौंहारों की ख़ुशियां हमेशा हमेशा…

ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ
♥~*~दीपावली की मंगलकामनाएं !~*~♥
ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ
सरस्वती आशीष दें , गणपति दें वरदान
लक्ष्मी बरसाएं कृपा, मिले स्नेह सम्मान

**♥**♥**♥**●राजेन्द्र स्वर्णकार●**♥**♥**♥**
ஜ●▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬●ஜ