आइने के सामने से , जो मैं गुजरी
तो , उसी पल ठिठक कर , ठहर गई |
चेहरे पर , उम्र की लकीरों को देख...
यक़ीनन मैं थी डर गई |
पर उसी पल होंठों पर
सुकूने मुस्कान भी बिखर गई |
शायद दिल में ... बीते लम्हों को
इत्मिनान से जीने का सकून था |
और आज भी खुद पर भरोसा मुझे बेहिसाब था |
3 टिप्पणियां:
पहला स्टेंजा- असली सच
दूसरा स्टेंजा- सोचा-समझा सच
बीते लम्हों को इत्मीनान से बिताने का सकून सचमुच ही खुद के भरोसे को मजबूत करता है.
जीवन स्वयं को ऐसा ही देखता है और यही उसके जीवंत होने की निशानी भी है. सुंदर रचना.
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